कालीयनाग के दमन का रहस्य ।।
कालीयनाग के दमन का रहस्य ।। Kaliya Nag Daman Ka Rahasya in Bhagwat Katha.
जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, पाखण्ड ही कालिया नाग है और इसके 101 फन हैं । फिर भी ये तो मर्यादित था, किन्तु हमारे तो अनगिनत हैं । हमारे संकल्प विकल्प फन ही हैँ । भगवान से प्रार्थना करेँ “हे प्रभु! मेरे मन के कालीय नाग का दमन करो, उस पर अपने चरण पधराओ ।।
कालीय नाग के तो सिर्फ मुख में ही विष था, किन्तु हमारी तो एक एक इन्द्रियों और मन में भी विष भरा पड़ा है । राग, द्वेष, विषय, विकार आदि ही तो विष हैँ । जब तक हमारी इन्द्रियाँ वासना रुप विष से भरी है तब तक भक्ति नहीं हो सकती । इन्द्रियों में भरे विष को नष्ट करने के लिए सत्संग करना पड़ेगा ।।
कालीयनाग इन्द्रियाध्यास है और यमुना ही भक्ति है । अब इस यमुना रूपी भक्ति में इन्द्रियाध्यास रूपी पाखण्ड आने पर शुद्ध भक्ति नहीं हो सकती । भोग और भक्ति आपस में शत्रु है । भक्ति के बहाने इन्द्रियों को भोग की तरफ ले जाने वाला मन ही कालीयनाग है ।।
इन्द्रियों के साथ मन से भी विषयोँ का त्याग करने से भक्ति सिद्ध होती है । भक्ति मेँ विलासिता रूपी विषधर घुस जाने से भक्ति नष्ट हो जाती है । भक्तिमार्ग के आचार्य बल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य, चैतन्य महाप्रभु आदि सभी परिपूर्ण वैरागी थे ।।
बिना पूर्ण वैराग्य के भक्ति नहीँ हो सकती । भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की जननी है । इन्द्रियों से विष को निचोड़कर सत्संग मण्डली में भेजना है । कालीय नाग को प्रभु ने रमणक द्वीप भेजा, अतः विषरहित इन्द्रियों को रमणक द्वीप रुपी सत्संग मे भेजना है ।।
वहीँ जीव को असली भक्ति रस प्राप्त होगा । इन्द्रियों को भोगरस नहीं भक्ति रस से पोषित करना होगा । भक्ति द्वारा इन्द्रियोँ को सत्संग मे रमण कराना होगा । भक्तिमार्ग पर चलकर इन्द्रिय पुष्प को प्रभु के चरणोँ मे अर्पित करना होगा ।।
भोग से इन्द्रियो का क्षय होता है और भक्ति से पोषण । जो आनन्द योगीजन समाधि में पाते है, वही आनन्द वैष्णवोँ को कृष्ण कीर्तन से मिलता है । कीर्तन करते समय दृष्टि प्रभु के चरणो मे रहे, वाणी कीर्तन करे, मन स्मरण करे और आँखे दर्शन करेँगी तभी जप सफल होगी ।।
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जय श्रीकृष्ण ।।
जय श्रीमन्नारायण ।।
लेखक – पँ. शिवप्रसाद त्रिपाठी ‘आचार्य’ ।।